सुर लय भेद को बखान
गुनी जन सब ..
छंद रस ताल में , आलाप गमक भर
परगट गुप्त स्वर डागुर धुरपद में ..
श्रुतिज्ञान मन मोहे उपजत, अगनित कर…(प्रो0 ऋत्विक सान्याल )
उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्राचीन गायन शैली ध्रुपद है, जिसे चार परम्पराओं या चार बानियों द्वारा अलग अलग विकसित किया गया –डागुर ,खंडार, नौहार और गौड़हार..
स्वर ताल और पद का एक खूबसूरत समन्वयक है ध्रुपद, जिसमे मुख्य रूप से स्तुतिपरक पद देखने को मिलते हैं| ध्रुपद का प्रस्तुतीकरण विभिन्न लयकारियों में होता है,जिसमे लय की विशेष विविधता होती है| इसके साथ ही ॐ, नोम, तन , देरेना जैसे शब्द आलाप में प्रयुक्त होते हैं ,जो निरर्थक होते हुए भी सार्थक भाव प्रकट करते हैं|
भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परम्परा ध्रुपद का स्वरुप 15वीं शताब्दी के आस पास सामने आया ..ऐसा माना जाता है कि ध्रुपद गायन शैली का अविष्कार ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने किया किन्तु कुछ विद्वानों का मानना है की राजा मानसिंह तोमर का केवल ध्रुपद शैली के विकास में योगदान रहा|
यह परम्परा राजदरबारों और मंदिरों के आश्रयों में विकसित हुई और अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया. परंतु कालांतर में यह परम्परा अल्प्प्रचलित हो गई|
इसके उपरांत भी इस परम्परा की जड़ें इतनी कमज़ोर नहीं थी की इसके अस्तित्व को कोई क्षति पहुंचे, ध्रुपद के कई बीज भारतीय संस्कृति की उपजाऊ मिटटी के भीतर साँस ले रहे थे| जो पुनः २० वीं शताब्दी में पनपे, तभी से इस परम्परा का पुनर्जागरण हुआ, कई ध्रुपद साधकों ने समर्पित भाव से ध्रुपद का पुनर्प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया|
काशी प्रारम्भ से ही सांस्कृतिक राजधानी रही है ,जहाँ भारतीय संगीत की विविध परम्पराओं की विविध परम्पराओं का सृजन और विकास दोनों ही हुआ…एक तरह से कहा जा सकता है की काशी में ध्रुपद परम्परा का विकास और प्रचार प्रसार भी…जहाँ से ध्रुपद आज वैश्विक स्तर पर स्थापित हो सका है..
काशी में इस परम्परा के प्रचार प्रसार हेतु सन १९७५ को संकटमोचन मंदिरके पूर्व महंत प्रोफ. वीरभद्र मिश्र जी ने ध्रुपद मेला समिति का शुभारम्भ काशिराज स्व. विभूति नारायण सिंह जी के सहयोग से किया… ‘काशिराज विद्यामंदिर न्यास ,,
ध्रुपद मेला समिति को अनुदान भी प्राप्त हुआ..इस आयोजन में मुख्य रूप से डॉ. प्रेमलता शर्मा ,प्रो. लालमणि मिश्र, प्रो. ऋत्विक सान्याल और डा. राजेश्वराचार्य जैसे कई महान व्यक्तित्वों का अमूल्य योगदान रहा..जिनके प्रयासों से ध्रुपद मेला अनवरत सन १९७५ से प्रतिवर्ष होता आ रहा है.. इसी क्रम में ध्रुपद को और भी समृद्ध बनाने के उद्देश्य से सन वर्ष २०१६ में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में प्रतिवर्ष त्रिदिवसीय ध्रुपद महोत्सव मनाने का संकल्प लिया गया है..इसके साथ ही वर्ष २०१६ में ही काशी के ख्यातिलब्ध पखावज वादक स्व. पं. श्रीकांत मिश्र जी की स्मृति में ‘पं. श्रीकांत मिश्र ध्रुपद फाउंडेशन’ द्वारा प्रतिवर्ष ध्रुपद उत्सव मनाया जा रहा है| इन सभी आयोजनों में ध्रुपद के सभी स्थापित कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर इस कला से आम जनमानस का परिचय करते हैं|
काशी में ध्रुपद का जीवंत होना काशी की संस्कृति की सार्थकता है ..क्योंकि ध्रुपद स्वयं संगीत का पर्याय है…भारतीय शास्त्रीय संगीत की आज जितनी भी विधातें प्रचलित हैं वे सब ध्रुपद के अंशों से ही जन्मी हैं| इसमें विविध रसों और पदों का समावेश है, फिर भी यह स्तुतिपरक है…यही इसका दर्शन है, जो देशी (लौकिक) संगीत होते हुए भी मार्गी (अलौकिक) संगीत का अनुभव कराता है|
DirectionThis year the festival will begin from 8 March 2021 to 11 March 2021 from 7 p.m. to 7 a.m. each day at Tulsi Ghat.
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